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    Home»ब्लॉग»उमर अपनी बात पर कितना खरा उतरते हैं?
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    उमर अपनी बात पर कितना खरा उतरते हैं?

    Amit ThapliyalBy Amit ThapliyalOctober 25, 2024No Comments6 Mins Read
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    बलबीर पुंज
    बकौल मीडिया रिपोर्ट, चुनाव जीतने के तुरंत बाद उमर ने स्पष्ट कर दिया था, हमें केंद्र के साथ समन्वय बनाकर चलने की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर के कई मुद्दों का समाधान केंद्र से लड़ाई करके नहीं हो सकता। यह देखना रोचक होगा कि मुख्यमंत्री उमर अपनी इस बात पर कितना खरा उतरते हैं?

    उमर अब्दुल्ला ने केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है। श्रीनगर में आयोजित कार्यक्रम में उप-राज्यपाल (एल.जी.) मनोज सिन्हा ने उमर के साथ पांच मंत्रियों को पद-गोपनीयता की शपथ दिलाई। उमर की पार्टी से सुरिंदर चौधरी उप-मुख्यमंत्री, तो निर्दलीय सतीश शर्मा मंत्री बनाए गए है। यह एक अच्छी शुरूआत है। परंतु प्रश्न उठता है कि मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश में एक हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? यह स्थिति तब है, जब देश में ऐसे कई उदाहरण है, जहां हिंदू प्रधान राज्यों- केरल, महाराष्ट्र, असम, राजस्थान, बिहार, मणिपुर, पुड्डुचेरी और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री मुस्लिम और ईसाई समाज से भी रहे है। यही नहीं, हिंदू बहुल भारत में कई गैर-हिंदू राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्यपाल भी बन चुके है।

    सत्तारुढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस (एन.सी.) ने अपने घोषणापत्र में जो 12 वादे किए है, उनमें सूबे में धारा 370-35ए और राज्य के दर्जे को बहाल करने के साथ कश्मीरी पंडितों की घाटी में सम्मानजनक वापसी का वादा भी शामिल है। मोदी सरकार ने इस बात को कई बार दोहराया है कि वह जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को बहाल करने को प्रतिबद्ध है। इस सच्चाई से उमर भी अवगत है कि एल.जी. के पास कई शासकीय शक्तियां है और केंद्र के सहयोग बिना, कई काम (राज्य दर्जा सहित) पूरे नहीं हो सकते।

    जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त, देश में सात और राज्य- अंडमान-निकोबार, चंडीगढ़, दादरा-नगर हवेली दमन-दीव, दिल्ली, लद्दाख, लक्षद्वीप और पुडुचेरी केंद्र शासित है। वर्तमान समय में संभवत: दिल्ली ही एकमात्र ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है, जहां की निर्वाचित सरकार और एल.जी. के बीच संबंध तल्ख है। इस संदर्भ में क्या जम्मू-कश्मीर की स्थिति दिल्ली जैसी हो सकती है?

    कांग्रेस की दिवंगत नेत्री शीला दीक्षित 1998-2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही थी। यदि केंद्र सरकार में उनकी पार्टी के नेतृत्व को छोड़ दें, तब मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित की 1998-2004 के कालखंड में राजनीतिक मतभेदों के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी सरकार की अगुवाई में भाजपा नीत केंद्र सरकार से कोई तनातनी नहीं थी। इसमें बदलाव अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी (आप’) की सरकार (2013 से अबतक) बनने के बाद आया, जो समन्वय के स्थान पर टकराव से देश की राजधानी में सरकार चला रही है। इस प्रकार की अराजकतावादी राजनीति कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी की देन है, जिन्होंने बिना वर्ष 2013 में किसी मंत्रिपद के अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश को प्रेस-कॉन्फ्रेंस में फाडक़र फेंक दिया था और अब प्रधानमंत्री मोदी के लिए अमर्यादित शब्दों का उपयोग करते है।

    ऐसा नहीं है कि दिल्ली में एल.जी. और आप’ के बीच तनातनी मई 2014 के बाद मोदी सरकार में प्रारंभ हुई है। कांग्रेस नीत केंद्र सरकार द्वारा एल.जी. बनाए गए नजीब जंग (2013-16) के साथ भी आप’ सरकार का रवैया कटु था। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उमर अब्दुल्ला को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अपनी पार्टी जैसा आचरण अपनाने का मशविरा दिया है। बकौल मीडिया रिपोर्ट, चुनाव जीतने के तुरंत बाद उमर ने स्पष्ट कर दिया था, हमें केंद्र के साथ समन्वय बनाकर चलने की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर के कई मुद्दों का समाधान केंद्र से लड़ाई करके नहीं हो सकताज्। यह देखना रोचक होगा कि मुख्यमंत्री उमर अपनी इस बात पर कितना खरा उतरते हैं?

    एक पुराना मुहावरा है- हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। क्या सच में सत्तारुढ़ एन.सी. अस्थायी धारा 370-35ए की वापसी चाहती है? अब्दुल्ला परिवार (फारुख-उमर) राजनीति में परिपक्व है। एक तो उन्हें मालूम है कि अब केंद्र में किसी भी दल की सरकार रहे, इन दोनों धाराओं की वापसी लगभग नामुमकिन है। सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक पीठ भी लंबी सुनवाई के बाद धारा 370-35ए के संवैधानिक परिमार्जन को हरी झंडी दे चुकी है। दूसरा यह कि इन दोनों प्रावधानों से क्या वाकई जम्मू-कश्मीर का कोई भला हुआ था? सच तो यह है कि धारा 370-35ए से कश्मीर की न केवल प्रगति रुक गई थी, बल्कि पाकिस्तान के सहयोग-वित्तपोषण से घाटी मध्यकालीन युग की ओर लौटने लगी थी।

    क्या यह सच नहीं कि धारा 370-35ए के सक्रिय रहते- घाटी में सभी आर्थिक गतिविधियां कुंद थी, विकास कार्यों पर लगभग अघोषित प्रतिबंध था, सेना-पुलिसबलों पर लगातार पत्थरबाजी होती थी, पर्यटक घाटी आने से कतराते थे, अलगाववादियों द्वारा मनमर्जी बंद बुला लिया जाता था, सिनेमाघरों पर ताला था, मजहबी आतंकवाद के साथ पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का वर्चस्व था, वातावरण पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे भारत-विरोधी नारों से दूषित था और शेष देश की भांति दलित-वंचितों के साथ आदिवासियों को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों (आरक्षण सहित) पर डाका था?

    ईमानदारी से विश्लेषण करने के बाद इस बात को धारा 370-35ए के पैरोकार भी नहीं झुठला सकते कि इन दोनों धाराओं की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर शेष भारत की तरह पिछले पांच वर्षों से गुलजार है। इस कॉलम में कई अवसरों पर हाल ही में कश्मीर की बदली स्थिति और सकारात्मकता का जिक्र किया है। जिनमें- लालचौक की बढ़ती रौनक, नए-पुराने सिनेमाघरों के संचालन, जी-20 जैसा बड़ा वैश्विक सम्मेलन होना, देश-विदेश से लगभग सवा लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आना और हजारों-लाख रोजगारों के मौके सृजन होना आदि शामिल है।

    अब्दुल्ला परिवार द्वारा अपनी पार्टी के घोषणापत्र में धारा 370-35ए को बहाल करने और कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक पुनर्वापसी का वादा- एक-दूसरे के परस्पर विरोधी है। धारा 370-35ए ही वही विषबीज था, जिसने कश्मीर में काफिर-कुफ्र’ जनित इको-सिस्टम के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 2019 में इन धाराओं की समाप्ति- घाटी को उसके मूल बहुलतावादी स्वरूप में लौटाने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम था।

    जिस अलगाववाद, मजहबी कट्टरता और घृणा को यहां दशकों से पोषित किया गया है, जिसके कारण 1980-90 के दशक में रक्तरंजित जिहाद के बाद कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था- उसका समूचा विनाश पांच वर्ष में एकाएक संभव नहीं है। कश्मीरी पंडितों, जोकि इस भूखंड की मूल सनातन संस्कृति के ध्वजावाहक है- उनकी घाटी में सुरक्षित पुनर्वापसी उसी जहरीली मजहबी इको-सिस्टम मुक्त माहौल में ही संभव है। क्या नई उमर अब्दुल्ला सरकार से इस संदर्भ में किसी सहयोग की उम्मीद की जा सकती है?

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