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    Home»ब्लॉग»हर जगह कुम्भ के मेले जैसा नजारा
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    हर जगह कुम्भ के मेले जैसा नजारा

    Amit ThapliyalBy Amit ThapliyalDecember 25, 2024No Comments6 Mins Read
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    श्रुति व्यास
    घूमने के सारे ठिकाने, पर्यटन स्थल चाहे कितने ही मनमोहक क्यों न हों, वहां कुंभ की रेलमपेल मची रहती है। जबकि छुट्टियों का एक मकसद भीड़-भाड़ से दूर जाना भी होता है। भारत भर में पूरे साल हर तरह के पर्यटन स्थल-बीच हों या पहाड़, तीर्थ हो या नेशनल पार्क-हमेशा बुक रहते हैं। हर जगह कुम्भ के मेले जैसा नज़ारा रहता है।
    गहरा नीला आसमान और हवा में झूमते ताड़ के वृक्ष। बालकनी से मैं ज़मीन पर बिछी सफ़ेद रेत का अंतहीन सिलसिला देख सकती हूँ। धूप ठीक उतनी गर्म है, जितनी होनी चाहिए। दूर कहीं से समुद्र की लहरों के तट से टकराने की आवाज़ आ रही है। मै अक्सर मनपसिंदा ‘रोज’ पेय की चुस्कियां लेती हूँ और साथ-साथ बीच में चॉकलेट केक के टुकड़े भी मुंह में डालती हूँ। यहाँ की हर सुबह हेमंत जैसी है और हर शाम, वसंत जैसी। यह स्वर्ग है। यहाँ सपने हकीकत बन जाते हैं। यहाँ आनंद ही आनंद है। और मैं यहाँ तब तक रहूंगी जब तक कि सर्दी का मौसम विदा नहीं हो जाता। और फिर मेरी आँख खुल जाती है!

    मैं तो दिल्ली में हूँ-जापान में बने गर्म कपडे पहनकर, अंग्रेज़ इंजीनियरों द्वारा डिजाईन किये हुए एयर प्युरिफायर के बगल में। हवा जहरीली है। और आँखें जल रही हैं, नाक बह रही है। मैं ‘रोज़’ नहीं बल्कि ‘काढ़ा’ पी रही हूँ। ‘चॉकलेट केक’ नहीं बल्कि ‘च्यवनप्राश’ खा रही हूँ। खिडक़ी के पास अपनी पसंदीदा कुर्सी पर बैठ कर आकाश में एक के बाद हवाईजहाजों को उड़ान भरते देख रही हूँ। वे अपने यात्रियों को उन सुन्दर जगहों पर ले जा रहे हैं, जहाँ के बारे में मैं केवल सोच सकती हूँ। हाय री किस्मत! मेरा मन खिन्न हो जाता है।

    ईमानदारी की बात तो यह है कि दिल्ली एकदम बेदिल हो गई है। वे चीज़ें जो दिल्ली को एक आकर्षण, एक चरित्र और एक व्यक्तित्व देती थीं, गुमशुदा हैं। यहाँ बहुत ज्यादा लोग हैं, बहुत ज्यादा। हर जगह को खोद डाला गया है, मोहल्लों-सडक़ों  के नाम बदल दिए गए हैं, नल का पानी काला होता है, हवा काली हो गई है। यह शहर अब चाट प्रेमियों का स्वर्ग नहीं रहा। अब यहाँ मोमो का राज है। अजीब सी मूर्तियाँ-बेढब और निरीह सी-कई जगह ऊग आईं हैं। नई उम्र के लडक़े-लड़कियों को वे रील बनाने के लिए एकदम उपयुक्त लगती हैं।

    शहर में इतनी भीड़ है कि इटली के दूतावास में बड़े दिन, क्रिसमस के मेले में घुसने पर ऐसा लगता है मानों आप कुम्भ मेले में हों। यह शहर एक समय उत्कृष्ट संस्कृतियों और पाक शैलियों का गुलदस्ता था, उनका मिलन स्थल था। अब यहाँ ज़हर है-हवा में भी और लोगों के दिलों में भी। मैं अपने आप को भाग्यवान मानती हूँ कि मैं उस दिल्ली में पली-बढ़ी जो सदियों से सत्ता का केंद्र थी, जिसकी अपनी शान थी, जो अपने लोगों, अपनी इमारतों और अपने खान-पान के लिए जानी जाती थी। यहाँ की सर्दियों खुशनुमा हुआ करती थी। चमकीली धूप, नीला आकाश और चारों तरफ खिलखिलाते बोगेनविलिया। करीने से छटाई किये हुए पौधों और पेड़ों से भरे पार्कों में हम परिवार या दोस्तों के साथ पिकनिक मनाते, खाना खाते, क्रिकेट और लूडो खेलते या अलसाते हुए अगाथा क्रिस्टी या ब्रोंटी पढ़ते। अचार को सुखाने के लिए छत पर धूप में रखा जाता था, सर्दियों में गर्मी के लिए आलू के चिप्स बनाये जाते थे और माएं बच्चों को जबरदस्ती मूली खिलाती थीं। सैलानी पुरानी दिल्ली की गलियों की ख़ाक छानते थे और इंडिया गेट-जब वह इंडिया गेट हुआ करता था-पर स्थानीय लोगों की भीड़ जुटती थी। शाम की हवा साफ़-सुथरी और ठंडी हुआ करती थी। आप घर में बनी स्वेटरें पहनें अलाव के आसपास बैठकर, हॉट चॉकलेट पीते हुए रेवडिय़ाँ टूंगते थे-कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य हुआ करता था जैसा कि भारतीय फिल्मों में क्रिसमस का दिखाया जाता है।
    मगर अब दिल्ली न तो आदर्श राजधानी बची है और ना ही आदर्श शहर। वह ऐसी जगह भी नहीं है जहाँ आप घूमने जा सकते हैं। पार्कों की कटाई-छटाई नहीं होती और वे हँसते-खेलते परिवारों से भरे नहीं रहते। हवा ऐसी नहीं है जो अचार को अचार बना सके और चिप्स को सुखा सके। विदेशी सैलानियों के लिए दिल्ली अब गोल्डन ट्रायंगल की यात्रा का एक पड़ाव भर है। स्थानीय लोग शहर से बाहर जाने के लिए आतुर रहते हैं-चाहे वह एक वीकेंड के लिए ही क्यों न हो।

    जिस स्वर्ग में होने का सपना मैं देख रही थी, दुर्भाग्यवश, वह बहुत दूर है और इतनी जल्दी वहां जाने का कार्यक्रम बनाना मुमकिन नहीं है। कुल मिलाकर, सर्दियों में फ्रेंच रीविएरा जाने की योजना एक और साल के लिए मुल्तवी! दिल्ली और उसके उदास मौसम, और समुद्र के किनारे गुनगुनी धूप का मज़ा लेने का एक और मौका खो देने पर मेरी झल्लाहट और बड़बड़ाना सुन कर मेरे पिता कुछ गुस्से से बोले, तो तुम गोवा ही चली जाओ। वाह, क्या घिसापिटा मशविरा है, मैंने तुरंत कहा। आप मॉरिशस, सेशेल्स या मालदीव जाने के लिए भी तो कह सकते थे। हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और उन्हें समझ आ गया कि मैं सही कह रही हूँ। वैसे मैं बता दूं कि ऐसे मौके कम ही आते हैं!

    मैं जानती हूँ कि दिव्य और स्वर्गिक समुद्री बीचों वाले इन देशों के मोदी के भारत से सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं हैं और हमारी सरकार ने ढेर सारे देशी पर्यटन स्थलों के उनसे बेहतर होने के बारे में इतना शोर मचाया है कि गोवा का नाम जुबान पर आ जाना एकदम स्वाभाविक है। मगर समस्या यह है कि हमारे अपने पर्यटन स्थल चाहे कितने ही मनमोहक क्यों न हों, वहां लोगों की रेलमपेल मची रहती है। जबकि क्या छुट्टियां मनाने का एक मकसद भीड़-भाड़ से दूर जाना नहीं होता? मगर फिर भी, अपने मन को बहलाने के लिए मैंने गोवा, पोंडिचेरी, कोवलम, अंडमान-भारत के लगभग सभी समुद्री तट के पर्यटन स्थलों की यात्रा के लिए फ्लाइट और होटलें खोजना शुरू कीं। मगर अफ़सोस, मुझे कहीं भी जाने के लिए फ्लाइट और रुकने के लिए ठीक-ठाक होटल में जगह नहीं दिखी। सब कुछ पहले से ही बुक था-कहीं कोई जगह नहीं है। मैं शायद नीमराना भी नहीं जा पाऊंगी!

    और यह साल के इस समय की बात नहीं है। भारत भर में पूरे साल हर तरह के पर्यटन स्थल-बीच हों या पहाड़, तीर्थ हो या नेशनल पार्क-हमेशा बुक रहते हैं। हर जगह कुम्भ के मेले जैसा नज़ारा रहता है। बहरहाल, एक बार फिर, लगातार पांचवें बरस, मेरा हॉलिडे सीजन दिल्ली में ही कटेगा। हवा और गन्दी होती जाएगी। और चूँकि मेरी कार बीएस-4 है, इसलिए मैं शहर में भी नहीं घूम पाऊँगी। जापान में बने गर्म कपडे पहनकर, अंग्रेज़ इंजीनियरों द्वारा डिजाईन किये हुए एयर प्युरिफायर के बगल में खिडक़ी के पास अपनी पसंदीदा कुर्सी पर बैठ कर मैं पेड़ों को धूसर रंग ओढ़ते देखूँगी और देखूँगी धूसर आकाश में उड़ान भरते हवाईजहाजों की टिमटिमाती रौशनियाँ। और कहवा के हर घूँट के साथ यहीं सोचूंगी कि काश मैं भी इनमें से किसी जहाज़ में बैठी, नीले आकाश और ताड़ के पेड़ों की दुनिया की तरफ उड़ी जा रही होती।

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