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    Home»ब्लॉग»ईवीएम मुद्दे पर कांग्रेस को पंचर करने का प्रयास
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    ईवीएम मुद्दे पर कांग्रेस को पंचर करने का प्रयास

    Amit ThapliyalBy Amit ThapliyalDecember 24, 2024No Comments6 Mins Read
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    अजीत द्विवेदी
    संसद का शीतकालीन सत्र कई मायने में बहुत दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम वाला रहा है। इस सत्र में जो विधायी कामकाज हुए या दोनों सदनों में संविधान पर जो चर्चा हुई वह अपनी जगह है लेकिन जो राजनीति हुई वह ज्यादा दिलचस्प रही। यह पहली बार हुआ कि पूरे सत्र में कांग्रेस सत्ता पक्ष के साथ साथ विपक्ष की पार्टियों के निशाने पर भी रही। कांग्रेस को अलग थलग करने का प्रयास भाजपा की ओर से हो रहा था तो साथ साथ विपक्षी गठबंधन की पार्टियों की ओर से भी हो रहा था। यह प्रयास इतना व्यवस्थित था कि शुरू में तो कांग्रेस भी नहीं भांप सकी कि जो हो रहा है वह एक डिजाइन के तहत हो रहा है। लेकिन फिर कांग्रेस को समझ में आया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। एक महीने के सत्र में वह अपना एक भी एजेंडा सदन में ठीक से नहीं उठा सकी। सरकार से ज्यादा विपक्ष की पार्टियों ने कांग्रेस के एजेंडे को पंक्चर किया।
    कांग्रेस का इस सत्र में सबसे बड़ा एजेंडा अडानी का था। सत्र से ठीक पहले अमेरिकी अदालत में गौतम अडानी और सागर अडानी सहित आठ लोगों के खिलाफ फ्रॉड और घूसखोरी के आरोप लगे थे और वारंट जारी होने की खबर आई थी। इस लिहाज से यह विपक्ष के लिए बड़ा मौका था कि वह केंद्र सरकार को क्रोनी कैपिटलिज्म पर घेरे। कांग्रेस ने यही किया। उसने संसद ठप्प किया और संसद परिसर में प्रदर्शन भी किया। लेकिन दो दिन के बाद ही ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने अपने को कांग्रेस के प्रदर्शन से अलग कर लिया।

    इतना ही नहीं तृणमूल कांग्रेस ने यह भी कह दिया कि वह अडानी के मसले पर संसद ठप्प करने के समर्थन में नहीं है। वह चाहती है कि दूसरे मुद्दों पर संसद में चर्चा हो।
    हालांकि ऐसा नहीं है कि अडानी के अलावा दूसरे मुद्दे नहीं उठाए जा रहे थे। लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने अपने राज्य के स्थानीय मुद्दे और मणिपुर का मुद्दा उठाने के नाम पर अपने को कांग्रेस से दूर किया। तृणमूल के यह स्टैंड लेने के करीब एक हफ्ते बाद समाजवादी पार्टी ने भी यही स्टैंड ले लिया। सपा ने भी कह दिया कि वह अडानी के मसले पर कांग्रेस के साथ नहीं है। उसके लिए संभल की शाही मस्जिद के सर्वे के दौरान हुई हिंसा का मुद्दा ज्यादा बड़ा था। जिस समय तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने अडानी मसले पर कांग्रेस को अलग थलग करने का अपना दांव चला उसी समय लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने अपनी जिद में कहा कि कांग्रेस अडानी का मुद्दा नहीं छोडऩे जा रही है।

    उनको पता था कि यह मुद्दा सरकार को और भाजपा को सबसे ज्यादा तकलीफ दे रहा है। तभी उन्होंने साफ कर दिया कि संसद के शीतकालीन सत्र में कांग्रेस यह मुद्दा उठाती रहेगी। उस समय तक संभवत: उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि इस मुद्दे की हवा निकालने के लिए तृणमूल कांग्रेस किस हद तक जाएगी। तृणमूल कांग्रेस का अगला कदम था, सीधे कांग्रेस के नेतृत्व को चुनौती देना और विपक्षी गठबंधन में उसकी ऑथोरिटी को कमजोर करना। इसके लिए सीधे ममता बनर्जी मैदान में उतरीं। पहले कल्याण बनर्जी या काकोली घोष दस्तीदार या दूसरे नेताओं के जरिए बयानबाजी हो रही थी लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देने की बात आई तो खुद ममता बनर्जी ने कहा कि उन्होंने इंडिया’ ब्लॉक का गठन किया था मौका मिले तो वे इसका नेतृत्व करना चाहेंगी। इसके बाद तो पंडोरा बॉक्स खुल गया। ऐसा लगा, जैसे पार्टियां कांग्रेस से भरी बैठी हैं। एक के बाद एक नेताओं ने कांग्रेस से नेतृत्व छीन कर ममता बनर्जी को देने की मांग शुरू कर दी। संजय राउत से लेकर शरद पवार और रामगोपाल यादव से लेकर लालू यादव तक सब ममता की जयकार करने लगे।

    रामगोपाल यादव ने कहा कि राहुल विपक्षी गठबंधन के नेता नहीं हैं तो लालू यादव ने कहा कि कांग्रेस के विरोध की परवाह किए बगैर ममता को नेता बनाना चाहिए।
    इसके बाद मीडिया में कथित राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा बताया जाने लगा कि ममता बनर्जी को विपक्ष का नेता बनाने के क्या क्या फायदे इंडिया’ ब्लॉक को मिल सकते हैँ। जब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर इससे भी फर्क नहीं पड़ा और वे अडानी का मुद्दा उठाते रहे तब ईवीएम के मुद्दे पर कांग्रेस को पंक्चर करने का प्रयास शुरू हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस ईवीएम का रोना बंद करे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस जब चुनाव जीत जाती है तो जश्न मनाती है और हारने पर ईवीएम को दोष देती है।

    इसके तुरंत बाद ईडी और सीबीआई की जांच में फंसे ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी ने कांग्रेस के ईवीएम विरोध को खारिज करते हुए कहा कि कांग्रेस सबूत पेश करे कि कैसे ईवीएम हैक किया जाता है। अडानी के बाद ईवीएम दूसरा मुद्दा था, जिस पर कांग्रेस ने केंद्र सरकार के विरोध का पूरा नैरेटिव बनाया था। लेकिन भाजपा के साथ साथ विपक्ष की पार्टियों ने ही इन दोनों मुद्दों को पंक्चर करने का प्रयास किया। सवाल है कि विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस को अलग थलग करने का यह जो प्रयास संसद सत्र में किया उससे कांग्रेस कमजोर हुई, बैकफुट पर गई, अलग थलग हुई या विपक्ष की चुनिंदा पार्टियों की पोल खुली? क्या इससे ममता बनर्जी और अखिलेश यादव ज्यादा एक्सपोज नहीं हुए हैं? क्या इन दोनों को अंदाजा है कि इनको लेकर क्या नैरेटिव बन रहा है? सहज रूप से यह धारणा बनी है कि देश के सबसे अमीर कारोबारी गौतम अडानी ने चाहे जिस तरह से हो इन दोनों नेताओं को अपना बना लिया है। यह भी कहा और माना जा रहा है कि विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां अडानी मसले पर राहुल के अभियान से इसलिए असहज हैं क्योंकि उनको किसी न किसी तरह का लालच है या भय है।

    किसको लालच है और किसको भय है, यह अलग चर्चा का विषय है लेकिन हकीकत है कि कांग्रेस को अलग थलग करने के चक्कर में ममता बनर्जी और अखिलेश यादव के साथ साथ विपक्ष की कई पार्टियों ने अपने को एक्सपोज कर लिया है। असल में इन पार्टियों ने एक तीर से दो शिकार करने का प्रयास किया। उनको लगा कि कांग्रेस के एजेंडे को पंक्चर करेंगे तो सरदार खुश होगा, शाबाशी देगा और दूसरे, कांग्रेस को भी अलग थलग कर देंगे तो विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व की राह निष्कंटक बनेगी।
    साथ ही वोट की राजनीति में भी कांग्रेस की ओर से पैदा की जा रही चुनौती खत्म होगी। पता नहीं यह लक्ष्य कितना पूरा हुआ लेकिन यह जरूर हुआ कि इन नेताओं ने अपनी जो छवि लडऩे वाले और क्रांतिकारी नेता की बनाई थी वह अब पूंजी के सामने झुकने और सत्ता की ताकत से दबने वाले नेता की हो गई है। कहने को ये पार्टियां अब भी केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ बयानबाजी करेंगी लेकिन उनका कोई खास मतलब नहीं होगा। उसे नूरा कुश्ती ही माना जाएगा।

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